Shayari
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आलिम-ए-ज़माना होते भी ग़र, कहाँ मुमकिन रिश्तों की कद्र रखते !
हुए अहमक भी तो फ़क्र-ए-आतिश हुआ, तेरे दीदार-ए-आरज़ू में बसर रखते !!
आशियाँ-ए-दिल हो शोहरत ही ग़र, हुसूल-ए-मक्सद में कैद-ए-दिल रखते !
तज्कारा-ए-मुहोब्बत होती किस कद्र, आज़-ए-दौलत ही ग़र दिल रखते !!
ज़हन-ओ-दिल की कब हुई दोस्ती, कहाँ चैन-ओ-सुकूँ-ए-खियाबां रखते !
कम ही सही ग़र सुकूँ तो बाकी, हबीब-ए-दिलदार भी चंद रखते !!
सूल-ओ-दौलत, लम्हा-ए-क़यामत कहाँ ये जाएदाद रखते !
देखे से तुम्हे कोई मुस्कराए भी ग़र, ये माल-ओ-आतिश हर लम्हा रखते
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