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पोशीदा-ए-जज़्बात

Shayari
Shayari
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गुमनाम-ए-राह फिर चलें किस कद्र, मारूफ़-ए-राह भी ग़र हुआ काफ़िर !!

तमाशा-ए-आलम हैं बहुत लेकिन, देखने को निगाहों में दम कहाँ !
तमाशबीन भी रहे दुनिया सारी, लुट गया जो इक रोज़ ग़र तू आतिश !!

जलाएँ भी कैसे शम्मा-ए-शब्, हासिल-ए-मुफ़्लिस रहे अँधेरा ही फ़क़त !
रोशना-ए-मुफ़्लिस मिल जाये फिर भी, जल गया जो इक रोज़ ग़र तू आतिश !!

आरस्ता-ए-दरबार-ए-ख़ुदा करें भी कैसे, ख़ुदापरस्त भी ग़र मैं होता !
लिल्लाह तेरी रह्मत होती मुझपर, मर गया जो इक रोज़ ग़र तू आतिश !!
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मारूफ़ = पहचाना, आलम = दुनिया, आरस्ता = सजाना

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