Shayari
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ग़म नहीं ग़र कम भी हों, मेरी कलम-ए-रोशनाई !
लहू-ए-आदम भिखरा तो है, हर नक्श-ए-क़ायनात तलक !!
हुआ कुछ रोज़, अब नहीं मुन्तज़िर-ए-पैग़ाम मुझे सहर रहा !
यूँ तो कभी इख्तिताम-ए-शब्, होती भी थी अख्बार तलक !!
पैगामों में लहू ठहरा, हर शफ़ा चीखता बस दर्द फ़क़त !
खूँ-ए-जज़्बात-ए-दास्ताँ ही बयाँ, इस क़ायनात के फ़नाह होने तलक !!
अब रहा नहीं लफ़्ज़ों में दम, हलाक़-ए-आदम से तमाशा करें !
हर गोशे में बस बारूद छिपा, ऐ आतिश तेरे मरने तलक !!
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इख्तिताम = खात्मा, हलाक़ = बर्बादी, गोशा = कोना
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