Shayari
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यूँ तो नहीं गुनाह-ए-आदम, दर गुज़र न रहे जिसका !
ग़र इक हमसे ही हो जाए, कब्र-ओ-ज़मीं न अदा करना !!
हैं बहुत गुस्ताख़ जिंदा भी, गुलिस्ताँ-ए-ख़ुदा के आगोश में !
इक हम ही रहें ना-काबिल -ए-बरदाश्त ग़र, ना दोज़क में भी हमें पनाह रखना !!
कुछ खुदगर्ज़-ए-मर्ज़ हुए, कहीं बे-इमानी में दिन गुज़रा !
ग़र शब्-ए-ख़ता हो जाए कोई, बस नींदों में पनाह रखना !!
खिज़ाओं से हर रंग ख़फा, ज़ेब-ए-मुफ़्लिस कहाँ इमाँ रखना !
ना रहें हम कामिल कोई ज़ह्न-ओ-दिल भी ग़र, ऐ आतिश तू हमारी ख़ैर रखना !!
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