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मख्बूत

Shayari
Shayari
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रंग-ए-लहू भी फ़र्क कहाँ, रफ़्तार हो फ़र्क ये मुमकिन है !
मगर फिर भी ये कैसी दुनिया, ज़ात-ए-लहू का दम भरती है !!

दर्द-ए-सरा का रंग-ए-लहू, आतिश तू करता है क्यूँ !
यूँ भी कहाँ इर्फ़ात-ए-अर्ज़ , ज़मींदोश-ए-आदम होने को है !!

अल्लाह बक्शे ज़ात-ए-मुहब्बत, बस्ती-ए-नफ़रत क्यूँ बसाये आतिश !
ज़बां-ए-फ़र्क ग़र करता भी तू, बे-जुबां का मज़्हब तू रखता क्या है !!

जुनूँ-ए-ताक़त भी है बे-इन्तेहाँ, ज़र्रा-ज़र्रा कर बाँट चला ख़ुदा !
सनत अक़ल से ग़र हासिल नफ़रत, मख्बूत हो आतिश भी बेहतर है !!
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सरा / अर्ज़  = पृथ्वी, इर्फ़ात =  बहुत,  मख्बूत = पागल

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