Shayari
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खुदसे करें तार्रुफ़ भी ग़र, इक अरसे तलक वक़्त लगता है !
सच कहें भी ग़र कैसे, कहाँ होश-ओ-हवास ही कायम है !!
तगाफुल भी हो तो ग़र कैसे, वजूद-ए-मरासिम किस राह मिले !
खुदगर्ज़-ए-मुहब्बत हुए भी हम, जीयें भी तन्हा कहाँ ग़म है !!
हलाक़-ए-जिस्म से किसे कोफ़्त है, बाब-ए-रिहाई हासिल वही !
ख्व़ाब-ओ-हलाक़ हो राह-ए-ज़िन्दगी, वीराने सा ख़ामोश ये दर्द रहता है !!
पोशीदा हैं जाने राज़ कितने, ऐ अल्लाह तेरी खुदाई में !
पा जाये मंजिल-ए-ज़िन्दगी को तू, आतिश बस यही दुआ करता है !!
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तार्रुफ़ = भेंट, तगाफुल = शिकायत, हलाक़ = ख़त्म करना,
बाब = दरवाज़ा, पोशीदा = छुपा
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