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बे-परवा-ए-दायरा-ओ-बंदिश

Shayari
Shayari
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दायरा-ओ-बंदिशों से रहे बे-परवा, कुछ ऐसा मज़हब इजात करो !
कलीसा-ओ-मज़्जिद का फ़र्क मिटे, नूर-ए-ख़ुदा से रौशन जहाँ करो !!

यूँ तो वजूद-ए-जानवर को भी मयस्सर है साँसें ज़िन्दगी तलक !
गर क़त्ल हुआ तुझ पर आतिश, फिर नाज़-ए-इंसां कुछ तुम करो !!

मक्सद-ए-ज़िन्दगी है इश्क फ़क़त, हर नक्श-ए-कुदरत निशाँ इसका !
तक्सीम-ए-फासील रखता है क्यूँ, क़त्ल-ए-महसूद को कुछ राह करो !!

लिल्लाह तेरे है नाम बहुत, ज़बानों का है फर्क शायद !
दिलों में फर्क ना रहे भी ग़र, तहलील ऐ आतिश कुछ ऐसी करो !!
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कलीसा = चुर्च, फासील = दीवार, महसूद = नफ़रत, तहलील = उपाय

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